बैरिया (बलिया)। बसन्त ऋतु का आगमन होते ही बसन्त पंचमी के दिन गांवों में पारम्परिक होली गीत के साथ ताल ठोकने की परम्परा अरसे से चली आ रही थी, लेकिन अब इस परम्परा का लोप हो रहा है। परम्परागत होली गीत व ताल ठोकना 85 फीसदी गांवों में नही दिख रहा है। इसको लेकर पुरनियों में चिन्ता है।
नहीं समझ पा रही है नई पीढ़ी होली गीत का तो मतलब
होली गीत के माध्यम से राम, कृष्ण, शिव आदि देवताओं के स्मरण किये जाते थे, जो अब विलुप्तप्राय हो गया है।
ग्रामीण अंचलों में एक परम्परा थी कि लोग किसी मन्दिर या सार्वजनिक स्थानों पर एकत्र होकर दरी बिछा कर ढोलक, झाल, तासा लेकर बैठ जाते थे और एक राय होकर फगुआ गायन करते थे। एक साथ गुड़-काली मिर्च का सेवन के बाद रातभर फगुआ गाते थे। इन कार्यक्रमों का सबसे बड़ा फायदा यह था कि इससे आपसी प्रेम सौहार्द कायम रहता था। पुरानी से पुरानी दुश्मनी भूलकर लोगबाग गले लगाकर, एक साथ एक दरी पर बैठ कर फगुआ गाते थे।
कहते हैं पुरनिया…
गांव के लोग बताते हैं कि घूम-घूम कर घर-घर होली गाने और रंग लगाने की वो आत्मीयता पर धुंध छा गया है.लोक संगीत की जगह यूट्यूब पर भोजपुरी के फूहड़ गीतों ने ले लिया है। खेत, सिवान, ताल-पोखर, बाग-बगइचा और घनी अमराई बस कविता बनकर रह गए हैं। अब होली के एक दिन पहले बम्बई, सूरत, अहमदाबाद, नोएडा और फरीदाबाद से कमासुत लोग जैसे-तैसे ट्रेन में लदकर गाँव आतें हैं। फगुआ बीतते ही वैसे लदकर चले जाते हैं.
टीवी एवं साउण्ड सिस्टम में उलझी युवा पीढ़ी…
गत कुछ सालों ने पुरानी एवं नई पीढ़ी के बीच का अन्तर लोककला समझ की लिहाज से काफी बढ़ा हुआ प्रतीत होता है. नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी को नजर अन्दाज कर टीवी व साउण्ड सिस्टम में उलझ कर रह गयी। इस कारण परम्परागत होली व फगुआ गीत का गांवों में लोप हो रहा है. दो दशक पूर्व गांवों में डोर-टू-डोर फगुआ गायन का आयोजन होता था, लेकिन आज के समय में ऐसा सुखद माहौल देखने को कम ही मिलता है.
न्यूज स्टोरी : शिवदयाल पांडेय
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